भारतीय नाट्य साहित्य में रंग परंपरा
: एक विश्लेष्णात्मक अध्ययन
प्रस्तावना : भारतीय रंग परंपरा का रूप पुरातन है और उतना ही पुरातन भारतीय नाटय़ साहित्य की परंपरा है । भारतीय साहित्य के पुरातन रूप में काव्य और दृश्य के दो भेद देखे गए । काव्य को अध्ययन व दृश्य काव्य को रंगमंच पर अभिनीत करके सामाजिको का मनोरंजन व रसानुभूति कराना ही दृश्य काव्य उद्देश्य था। साहित्य और कलाओं के साथ नाटक और रंगमंच की परंपरा भी पाँच हजार वर्ष पुरानी है । रामायण, महाभारत को गाकर सुनाने की परंपरा के संकेत मिलते है । नाटक और रंगमंच का संबंध बहुत गहरा और पुराना है । संस्कृत नाटय़ व रंगमंच, लोकनाटक व रंगमंच, पारसी, पाश्चात्य, साहित्यक आधुनिक नाटक व रंगमंच का रूप के प्रवाह की तरह समाज को मनोरंजित व पोषित कर रहा है। भारतीय रंग परंपरा का विकास उसकी समृद्धता को प्रकट करता है । संस्कृत नाटकों की सुदीर्घ परंपरा में रंगमंच को अभिनय करने का मुख्य केंद्र माना गया । वैदिक काल से ही हमें नाटकों के अभिनय योग्य संवादो का उल्लेख मिलता है । संस्कृत रंगमंच के उन्नत रूप कोभी देखा गया । मध्यकालीन युग की परिस्थितियों के बदलाव ने रंगमंच पर भी प्रभाव डाला, लोक रंगमंच का रूप रामलीला, सांग, रासलीला तथा नौटंकी के रूप में विद्यमान रहे । रंगमंच और नाटक को हम अलग - अलग रूप में नहीं देख सकते, यह एक - दसूरे को पूर्णता प्रदान करते है । और समाज को आनंद व मनोरंजन के दोबारा जोड़ने का प्रयास करते है । रंगमंच की उपयोगिता को प्रत्येक नाटय़ परंपरा ने अपनाया व पल्लवित
- पुष्पित किया । दृश्य के माध्यम से मनोरंजन करने का साधन रंगमंच के माध्यम से पूर्ण हुआ ।
शब्द कुंजिका :
मनोरंजन, पुरातन, रंगमंच, अभिनय, परंपरा, प्रस्तुतिकरण आदि |
शोध विस्तार : कला का पहला उद्देश्य मनोरंजन है और उसके बहाने से शिक्षा देना भी जरूरी है- जिस तथ्य और सत्य की तरफ आज से ढाई-तीन हजार वर्ष पहले भरत व अन्य नाटय़ आचार्यों ने संकेत किया था। भारतीय रंग परंपरा का रूप बहुत प्राचीन है और यह कहना गलत नहीं होगा कि भारतीय नाटय़ साहित्य की परंपरा भी उतनी ही पुरातन है। अभिनय का आधार रंगमंच से ही जुड़ा है । रंगमंच एक सामूहिक गतिविधि में धीरे - धीरे बदलने लगा इस प्रक्रिया में बदलाव भी हुए । नाटक का रंगमंच पर प्रस्तुतिकरण, अभिनय के विभिन्न रूप आदि को भी प्राथमिकता दी गई । देशकाल,
परिस्थितियों के अनुसार नाटक और रंगमंच का विकास हुआ। रंग परंपरा का रूप अनेक बदलावों से गुजरता हुआ, समय की धारा में आपको पोषित करने का प्रयास करता रहा जिसका कार्यकलाप संगीतशालाओं और नाटय़शालाओं के समाज के समक्ष प्रस्तुत किया जाता था।
साहित्य दर्पणकार ने भी “दृश्य तत्राभिनेय”
कहकर नाटक के आत्मतत्व अभिनय को स्पष्टतः रेखांकित कर दिया है संस्कृत नाटय़शास्त्र में नाटक को दृश्य काल की संज्ञा दी गई । दृश्यविधा होने के कारण उसका रसास्वादन हजारों व्यक्ति एक साथि कर सकतेहै । डॉ. स्वरूप सावित्री के विचारानुसार “रंगमंच के द्वारा ही देश और जाति के उत्कर्ष की झांकी जनता के समक्ष रखी जा सकती है ।”
भारतीय रंगपरंपरा का रूप वैदिक काल में अंकुरित हुआ भरत की रंग परंपरा में पल्लवित - पुष्पित हुआ और संस्कृत नाटय़ आचार्यो के संरक्षण में अपनी जडों को फैलाने मे सक्षम हुआ । रंगपरंपरा का रूप निरंतर बदलावों के साथ नए नए रूपों में साहित्य, समाज और कला को नए आयाम देता आ रहा है ।
भरत पूर्व रंग परंपरा
भारत के नाटय़ साहित्य में नाटक और रंगमंच का व्यवस्थित रूप दिखाई देता है । यह व्यवस्था भरत से पूर्व रंग व नाटय़ परम्र में विद्यमान थी । उतना समृद्ध रूप आचार्य भरत को एकाएक प्राप्त नही हुआ बल्कि भरत पूर्व भी विकसित नाटय़ व रंगपरंपरा थी । भरत पूर्व रंग परंपरा में नटों की सत्ता विद्यमान थी । नाटय़ की प्रस्तुति के लिए विदूषक और अभिनेता मौजूद रहते थे प्राचीन रंगमंच का प्रमाणिक इतिहास के अभाव में हम प्राचीन साहित्य में अनेकों स्थानों पर नाटय़ प्रस्तुति के संदर्भों को आधार रूप में ग्रहण करते है । रामायण के अयोध्या प्रसंग में नटसंघो, संगीत तथा वाद्ययंत्रो की उपयोगिता को स्वीकार किया गया है । और यह सारा कर्म रंगमंच पर साकार होता है । प्रसिद्ध रंगकर्मी व नाटय़ आलोचक महेश आनंद,
देवेद्र राज अंकुर के शब्दों में “भरत के पहले भी रंगमंच की कई परंपराएँ सक्रिय थी । भिनव गुप्त बताते है कि सदाशिव, ब्रह्मा और भरत - उन तीनों के नाटय़शास्त्रों की परंपराएँ बहुत पहले से चली आ रही थी |’’
पाणिनि ने नटसूत्रों का उल्लेख किया है । नया पतंजलि में प्रत्यक्ष अभिनय का वर्णन किया गया है । यह सभी रंगमंण्डप पर अभिनीत किया जाता था। अभिनय की प्रस्तुति के लिए उचित प्रबंध की व्यवस्था की जाती थी । भरत पूर्व नाटय़ साहित्यके लिए रंगशालाओं का उचित प्रबंध था ।
भरत मुनि और रंग परंपरा : भारतीय रंग परंपरा का व्यवस्थित रूप हमें भरत के नाटय़ साहित्य में मिलता है जिसमें भरत मुनि ने रंग संकेत भी दिए है और रंगमंच की उपयोगिता को भी स्वीकार किया है। भरतमुनि नाटय़ शास्त्र के प्रथम आचार्य माने जाते है । उन्होंने नाटक की उत्पत्ति का आधार दैवी माना है । भरतमुनि ने नाटय़शास्त्र में कहा है कि सत्ययुग के समाप्त हो जाने पर तथा त्रेता युग के आरम्भ होने पर इद्र, वरुण आदि देवताओं ने ब्रह्मा से प्रार्थना की कि वे आनन्द प्राप्ति का कोई ऐसा साधन दें जो दृश्य भी हो, श्रव्य भी हो और जिससे समाज के चारों वर्ण समान रूप से आनन्द ले सकें |’’
नाटक के साथ भरत ने रंगमंच की भी परिकल्पना की नाटय़शास्त्र में उनकी पहली नाटय़ प्रस्तुति अमृतमंथन थी जिसमें खुला मंच था। दानवों के उपद्रव ने रंग-प्रस्तुति में विघ्न- बाधा पैदा की जिसके परिणाम स्वरूप भरत ने बंद प्रेक्षागृह के निर्माण की योजना बनाईऑ। जिसे नाटय़ मण्डप कहा गया और इन नाटय़ मण्डपों का आकार, नाप भी अलग- अलग होता था।
नेपथ्य ग्रह की उपयोगिता को व्यक्त करते हुए भरत भूमि ने अपने विचार व्यक्त किए कि नेपथ्य ग्रह का निर्माण अभिनेताओं के उपयोग के लिया किया जाता है और यह रंगभूमि का अनिवार्य तत्व है रंगशाला का निर्माण नाटकके लिए किया जाता था तथा इस बात पर ध्यान खबर जाता था कि स्तर क ढंग से सुनाई दे सके रंगशाला का विस्तृत वर्णन करते हुए भरत ने लिखा है कि रंगशाला के दो भाग होते है पहला रंग भूमि और दूसरा प्रेक्षास्थल रंगभूमि के दो भागों में विभाजित किया जाता है पहला रंगपीठ और दूसरा रंगशीप होता है। के पीछे जो परदा लगा हुआ होता है वह पृष्ठभूमि का काम करता है और फिर उसी परदे के पीछे नेपथ्य होता है। प्रस्तावना की योजना रंगपीठ पर होती है जिसमें रंगसज्जा का विशेष ध्यान रखा जाता था उसे सौन्दर्यपूर्ण और आकर्षक बनाया जाता था ताकि वह रंगमंच पर प्रभाव उत्पन्न कर सके १ भरत के अनुसार रंगस्थल इतना विशाल नहीं होना चाहिए कि रंगमंच पर होने वाला अभिनय सुविधापूर्वक न देखा जा सके। भरत ने रंगमंच के वास्तुपक्ष का भी विस्तृत विवेचन दिया है। इस प्रकार अनेक रंग संकेत भरत के नाटय़शास्त्र में हमें प्राप्त हो जाएंगे जिनसे पता चलता है कि भरत मुनि के समय में भी रंगमंच की समृद्ध और व्यवस्थित परंपरा थी जिसका आधार, उन्होंने पौराणिक रेश परंपरा से प्राप्त किया था लेकिन नाटक का सीधा संबंध हर समय रंगमंच से ही जुड़ा पाया गया है।
डॉ.
नीलिमा दुबे ने भी भरत के नाट्यशास्त्र संबंधी विचारों की व्याख्या द्वारा स्पष्ट किया है कि भरत मुनि की रंगमंच की रंगपरंपरा में नेपथ्य का विधान भी था भरत के नाटय़शास्त्र के आधार पर रंगमंच की रूपरेखा व परिकल्पना का वर्णन किया है वैसे तो भरत ने तीन प्रकार के नाटय़गृहों का वर्णन किया है। निकृष्ट, चतुरस्त्र,
और त्रयष्ट ।’’
इन तीनों के नाटय़ ग्रहों में प्रत्येक के ज्येष्ठ,
मध्यम और कनिष्ठ तीन भेद है प्रत्येक नाटय़शाला की अपनी पृथक उपयोगिता का भी उल्लेख भरत ने अपने ग्रंथ में किया
| आचार्य भरत व उनके समकालीन नाटय आचार्यों ने रंगमंच व नाटय़ कला को व्यवस्थित रूप में समाज के सभी वर्गों के लिए प्रस्तुत किया।
लोक रंग परंपरा : लोकनाटय़ परंपरा व रंग परंपरा के संकेत वैदिक काल से ही मिलते है लेकिन अपनी पूर्णता व विकास लोक रंगमंच को मध्ययुग में मिला । संस्कृत रंग परंपरा का मध्य युग में बहिष्कार किया गया भक्ति परंपरा में ईश्वर की लीलाओं को जनता के सामने लाने के लिए रंगमंच की आवश्यकता व अनुभव को गई। लोक रंगमंच के दो मुख्य रूप ’रामलीला और रासलीला है। “रामलीला का प्रथम आयोजन वल्लाचार्य के द्वारा माना जाता है। रासलीला का श्री गणेश स्वयं तुलसीदास जी ने किया था |’’
यह लीलाएँ तीन चार सौ वर्षों तक जीवित रही। लोक नाटय़ों के प्रस्तुतिकरण या मंचन में लोक नृत्य, लोक संगीत का योग महत्त्वपूर्ण था । वाद्ययंत्रो में ढोल नगाड़ा, तुरही, भेरी आदि का प्रयोग किया जाता था। लोक रंग परंपरा में खुला रंगमंच होता था । नाटय़शास्त्र में सूत्रधार का वर्णन होता था वहीं लोक नाटय़ों में सूत्रधार के स्थान पर भरवौलिया का वर्णन मिलता है । जो रंगमंच का पर अपनी बुद्धिमत्ता, समझदारी द्वारा दर्शकों में हास्य उत्पन्न करता था तथा प्रेक्षकों को रंगमंच से जोड़े रखता था । लोक रंगमंच नियमों और परंपरा ओं से बंधा हुआ नहीं था । खुला मंच, स्वछंद अभिनय व प्रदर्शन व दर्शकों के मन तक पहुँचना ही लोक रंगमंच की पहचान थी। खुले आकाश के नीचे एक समूह बनाकर अभिनय कर लिया जाता था। दर्शक और रंगकर्मी के बीच कोई विभाजक रेखा नहीं होती। मंच बीचोबीच होता है जिसके चारों तरफ दर्शक घेरा डालकर खड़े रहते है। रामलीला,
रासलीला का मंचन खुले रंगमंच पर ही किया जाता था। लोक रंगमंच में प्रकाश व्यवस्था,
रूपसज्जा, वस्त्रविधान आदि का महत्त्व था किन्तु इनकी पूर्ति मशाल जलाकर, सामान्य वस्त्रसज्जा व रूपसज्जा द्वारा पूरी कर ली जाती थी। लोकरंग परंपरा में रंगमंच पर अभिनय करते समय पुरुष ही स्त्री- पात्रों की भूमिका कर लेते थे।
रंगमंच की उपयोगिता को लोक रंग परंपरा में विशेष रूप से देखा जा सकता है। लोक रंगमंच स्वाभाविक सादगीपूर्ण और कृत्रिमता से कोसों दूर रहा। लोकरंगमंच को ईश्वर तक पहुँचने का मंच माना गया । लक्ष्मीनारायण भरद्वाज ने अपनी पुस्तक रंगमंच “लोकधर्मी नाटय़धर्मी में अपने विचार व्यक्त किए है। लोकधर्मी नाट्यों में लोक का शुद्ध और स्वाभाविक अनुकरण होता है। उसमें विभिन्न भावों का संकेत करने वाली वाचिक, आंगिक, सात्विक और आहार्य - विधियों का समावेश नहीं होता ।’’ लोक नाटय़ परंपरा और रंग परंपरा का रूप भौगोलिक दृष्टि से अलग-अलग रूप में प्रचलित है। लेकिन इसकी आत्मा व उद्देश्य सादगी से पूर्ण विशेष ही रहा ।
आधुनिक हिंदी रंगमंच और नाटक : नाटक और रंगमंच का संबंध पुरातन काल से चला आ रहा है। नाटय़ परंपरा से संस्कृत नाटय़ तथा लोकनाटकों से पारसी नाटकों व रंगमंच की दौर एक समृद्ध परंपरा का काल-क्रम देखा जा सकता है। इस निरंतर प्रवाह में नाटक और रंगमंच का रूप बदलता गया किंतु उसमें छिपी अभिव्यक्ति संवेदना, संप्रेषण,
साध धारणीकरण का भाव समान रूप से विद्यमान है हिंदी नाटकों ने उन्नीसवीं शती तक अपना एक निश्चित रूप प्राप्त कर लिया था। पारसी रंगमंच के पतन ने साहित्यिक रंगमंच को स्थापित होने आधार भूमि प्रदान की । “भारतेन्दु और उनके साथियों ने इस पारसी रंगमंच से विरक्त हो कर इनकी प्रतिक्रिया में साहित्यिक रंगमंच की स्थापना की । हिंदी के रूप में खड़ी बोली का उपयोग हुआ । हिंदी रंगमंच व नाटक का उद्देश्य मनोरंजन से एक कदम आगे बढ़कर उद्देश्य और शिक्षा देना, प्रश्न उठाना,
वर्तमान परिस्थितियों को विवेकपूर्ण मनः स्थिति से समझना भी था ।’’ साहित्यिक रंगमंच में खेले जाने वाले नाटकों में देश प्रेम,
संस्कृति आदि की ओर अधिक ध्यान रखा जाता था और अधिकतर पौराणिक नाटक ही इस रंगमंच में अभिनीत होते थे ११२ आधुनिक युग का आरंभ नाटक की विद्या से ही आरंभ होता है। आधुनिक हिंदी नाटक नहुष ’गिरधर गोपाल द्वारा रचित पहला हिंदी नाटक माना गया तो कुछ रीवा के महाराजा विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा रचित नाटक आनंद रघुनन्दन को हिंदी का प्रथम नाटक मानते है । आधुनिक काल आगमन के साथ ही हिन्दी नाटकों में साहित्यिक चेतना का उदय हुआ ।
भारतेन्दु के नाटक और रंगमंच : हिंदी नाटय़ साहित्य में निरंतर विकास की प्रक्रिया चल रही है । नाटककार अपने काल की रंग परंपराओं व नाटय़ बोलियों से अछूता नहीं रह सकता वह उससे प्रभावित होकर ही अपनी नाटय़ रचनाओं को आधार प्रदान करता है। प्राचीनकाल से ही नाटककारों ने अपने काल के रंगमंच व नाटक को विकसित करने में भरपूर योगदान दिए है भरत मुनि, भास आदि अनेक नाटककारों ने अपने मौलिक प्रयोगों द्वारा नाटक व रंग परंपरा को समृद्ध किया व उसे आगे बढ़ाया ।
आधुनिक हिंदी नाटक व रंगमंच पर केवल पाश्चात्य रंग परंपरा व नाटय़ शैलियों का प्रभाव ही देखा गया है यह कहना असंगत होगा कि पाश्चात्य नाटय़ साहित्य व रंग परंपराओं से प्रभावित होने के साथ-साथ आधुनिक नाटककारों ने पारंपरिक नाटकशैली,
लोक नाटय़ व पारसी रंगमंच के मिले-जुले रूप को नया आधार प्रदान किया उन्होंने पुरानी नाटय़-रूढ़ियों को परिवर्तित कर नवीन प्रयोगों द्वारा नाटय़ और रंग परंपरा दोनों को नया आयाम प्रदान किया और हिंदी नाटक व रंगमंच को नयी दिशा प्रदान की “आधुनिक हिंदी नाटककारों में भारतेन्दु का नाम सर्वप्रथम लिया जाता है। उनके समय में पारसी रंगमंच सक्रिय था लेकिन भारतेन्दु ने पारसी रंगमंच के विरुद्ध नयी नाटय़ परंपराओं की खोज की उन्होंने संस्कृत व नाटय़ शास्त्र की परंपराओ में परिवर्तन करके नवीन नाटय़ परंपरा का उदय किया। उनके नाटक सत्य हरिश्चद्र, चंद्रावली,
वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति ।’’
आदि नाटकों में नवीनता के संकेत देखे जा सकते है।
आधुनिक युग के अग्रदूत भारतेन्दु हरिश्चन्द ने हिन्दी नाटक व नाटककार और रंगमंच के नये रिश्ते की तलाश की और सार्थक एवं गम्भीर रंगकर्म की आधारशिला रखी । आधुनिक रंगकर्मी व नाटककार जयदेव तनेजा के विचार में “निःसंदेह पारसी रंगमंच सम्पृक्त जिन साहित्यिक एवं कलात्मक नाटको से नाटय़ लेखन तथा स्वयं उनके अभिनय और व्यावहारिक रंगकर्म का जो आदर्श सामने रखा वह कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण एवं प्रेरणादायक था।’’ भारतेन्दु ने प्राचीन परंपरा और संस्कृत की नाटय़ शिला के आधार पर अपने नाटकों की रचना की ।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हिंदी नाटक व रंगमंच में अनेक उत्साहवर्द्धक विस्तार रंग चेतना में नवीनता तथा बदलते भावबोध के कारण जिन नाटकों का निर्माण हो रहा था । उनमे
’व्यक्ति’ नाटक की परिधि में आ गया था और नाटक कार व्यक्ति संशय,
घुटन, आडंबर, अनैतिकता आदि मनोवैज्ञनिक आयामों को उल्लेखित कर रहा था। आगे चलकर नाटकों में अस्तित्वादी चिंतन और विसंगति बोध का प्राधान्य उत्तरोत्तर बढ़ता गया । पाश्चात्य नाटकों का प्रभाव भी हिंदी नाटय़ पर दिखाई देने लगा। एब्सई नाटय़ परंपरा व विसंगत नाटकों का चलन भी हिंदी नाटकों में दिखाई देने लगा क्योंकि सत्तर के दशक बाद नाटककारों ने परिवेश की भयावहता और भ्रष्ट आर्थिक, राजनीतिक,
सामाजिक व्यवस्था को अपना नाटय़ - विषय बनाया और उस समय के नाटक व नाटककारों पर पाश्चाव्य एब्सर्ड नाटय़ परंपरा का सहज प्रभाव दिखाई देता है लेकिन हिंदी नाटककारों ने जहाँ पाश्चात्य प्रभावों को ग्रहण किया वहीं अपने पारंपरिक नाटय़ संस्कारों व रंग परंपराओं को जीवित रखा आधुनिक हिंदी नाटककारोंने नाटय़ साहित्य को नवीन दिशा दी लेकिन रंगमंचीय दृष्टिकोण को भी नाटक का आधार,बनाया। रंग स्थिति को दृष्टि में रखकर नाटकों की रचना की और हिंदी रंग परंपरा को पुष्ट किया। मोहन राकेश, सुरेद्र वर्मा,धर्मवीर भारती, डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल, शेकर शेष,
भीष्म साहनी, मणिमधुकर,
असवार वजाहत, मीराकांत आदि नाटककारों पर अपने समकालीन हिंदी नाटय़ व नाटककारों का सहज प्रभाव पड़ा, वहीं आधुनिक हिंदी नाटक के समांतर प्रादेशिक भाषाओं के नाटक भी प्रचलित हो रहे थे।
आधुनिक हिंदी नाटकों की रंगचेतना और रंगमंच : इस प्रभाव से आधुनिक हिंदी नाटककार,
में प्रभावित हुए और उन्होने प्रादेशिक भाषाओं में लिखे जाने वाले नाटय़ो व रंगपरंपराओ के प्रभावों को भी ग्रहण किया क्योंकि तब प्रादेशिक नाटक व हिंदी नाटक एक दूसरे के प्रभावों से अछूते नहीं थे क्योंकि प्रादेशिक भाषाओं में लिखे जाने वाले नाटक भी सारे देश में विख्यात और लोकप्रिय हो रहे थे उन्होंने भी अपना अस्तित्व तैयार कर लिया था।
आधुनिक हिंदी नाटककारों में मोहन राकेश का महत्त्व सर्वोपरि है क्योंकि उन्होने नाटय़ साहित्य को जो आधुनिक संवेदना और रंग शिला प्रदान किया आगे चलकर वह अन्य नाटककारों के लिए उपयोगी सिद्ध हुआ । मोहन राकेश ने अपने नाटको द्वारा नवीन रंगचेतना, भावभूमि व शिल्प प्रदान किया । लहरों के राजहंस, आधे-अधूरे, आषाढ़ का एक दिन आदि नाटकों में कथ्य की विविधता होते हुए भी भाव, रंग व शिल्प का आधुनिक रूप ही दिखाई देता है।
संदर्भ ग्रंथ :
1.
डॉ. सत्यवती त्रिपाठी, आधुनिक हिंदी हिंदी नाटकों की प्रयोग धर्मिता
2.
जयदेव तनेजा, नयी रंग चेतना और हिंदी नाटककार
3.
डॉ. सावित्री स्वरूप, नव्य हिन्दी नाटक
4.
आचार्य खिनाथ (अनुश्री शालिग्राम शास्त्री) साहित्यदर्पण
5.
डॉ. लक्ष्मी नारायण भरद्वाज, रंगमंच लोकधर्मी नाटय़धर्मी
महेश
आनंद ,देवेन्द्र राज अंकुर
,रंगमंच का सिध्दांत ,पृष्ठ
सं-272
डॉ. सावित्री स्वरूप, नव्य हिंदी नाटक, पृष्ठ संख्य -292
डॉ. लक्ष्मी नारायण भरद्वाज, रंगमंच लोकधर्मी नाटय़धर्मी पृष्ठ संख्या - 120
डॉ. सावित्री
स्वरूप, नव्य हिन्दी नाटक
पृष्ठ संख्या - 296
डॉ. सत्यवती त्रिपाठी, आधुनिक हिंदी हिंदी नाटकों की प्रयोग धर्मिता पृष्ठ संख्या - 33