रविवार, 20 नवंबर 2022

पर्वत और घाटियाँ

 

पर्वत और घाटियाँ

 

बादलों को छूती बर्फीली चोटियाँ,

उनसे लगी होती हैं गहरी घाटियाँ |

इनसे हो बहती हैं टेढ़ी-मेढ़ी नदियाँ,

बहते हुए मानो बीत गयी सदियाँ |

 

सुंदर दिखते हैं रूई से बादल,

हरे-भरे मैदान लगते हैं मखमल |

बह रही है नदी करते हुए कल-कल,

झूम उठता है मन हर घड़ी हर पल |

 

दूध सा पानी झरनों से बहता है,

आगे ही बढ़ना है, वह हमसे कहता है |

ऊँचे पर्वत से निकल नीचे को गिरना है,

नदियों को आखिर में सागर से मिलना है |

शाम -ए -ग़ज़ल 2025

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