विरहणी
शब्दों का तुम जाल बनाकर, छल
करते थे निश-दिन ||
साँसे-साँसे चलती थी, तुम बिन खाना-पीना
भूल गई |
विरह ताप में जल-जलकर, यह काया
मेरी सूख गई ||
बन निर्मोही तू चला गया, बिन तुम
मैं कैसे जीती थी ?
कभी मिलो तो तुम्हे बताऊँ,पल-पल कैसे
घड़ियाँ बीती थी||
जीवन का ताप बना तप मेरा, नयनों
में फिर झरी लगी |
वषों बाद पिया मिलन होगा, जब
मुझको यह खबर लगी ||
अब नई कहानी फिर न गढ़ना, मैं
सत्य उसे न मानूँगी |
हठ समझो या अधिकार मेरा, इस बार चले बिना न मानूँगी ||
छाया बन मैं साथ तुम्हारे, हर
संकट से लड़ जाऊँगी |
बात कहोगे अपनी बीती, अविरल ही
सुनती जाऊँगी ||
जो चाहो तो अजमा लो, हर बात
तुम्हारी ही मानूँगी |
सर्वस्व तुम्हीं को सौंप चुकी,
विरह न तुमसे चाहूँगी ||
‘सुमित’ सरित बन मन भर दो, और
नहीं कुछ माँगूगी|
हठ समझो या अधिकार मेरा, इस बार चले बिना न मानूँगी ||
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