शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2025

विरहणी

 

विरहणी

                            प्रिय तेरी राह थी तकती, काटी रातें तारे गिन-गिन |

शब्दों का तुम जाल बनाकर, छल करते थे निश-दिन ||

साँसे-साँसे चलती थी, तुम बिन खाना-पीना भूल गई |

विरह ताप में जल-जलकर, यह काया मेरी सूख गई ||

बन निर्मोही तू चला गया, बिन तुम मैं कैसे जीती थी ?

कभी मिलो तो तुम्हे बताऊँ,पल-पल कैसे घड़ियाँ बीती थी||

जीवन का ताप बना तप मेरा, नयनों में फिर झरी लगी |

वषों बाद पिया मिलन होगा, जब मुझको यह खबर लगी  ||

अब नई कहानी फिर न गढ़ना, मैं सत्य उसे न मानूँगी |

हठ समझो या अधिकार मेरा, इस बार  चले बिना न मानूँगी ||

छाया बन मैं साथ तुम्हारे, हर संकट से लड़ जाऊँगी |

बात कहोगे अपनी बीती, अविरल ही सुनती जाऊँगी ||

जो चाहो तो अजमा लो, हर बात तुम्हारी ही मानूँगी |

सर्वस्व तुम्हीं को सौंप चुकी, विरह न तुमसे चाहूँगी ||

‘सुमित’ सरित बन मन भर दो, और नहीं कुछ माँगूगी|

हठ समझो या अधिकार मेरा, इस बार  चले बिना न मानूँगी ||

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