मंगलवार, 25 अगस्त 2020

बेटियाँ

 

बड़ी मासूम सी जज्बाती होती हैं  बेटियाँ 

इनको आंसू भी मिल जाए तो छुपाती हैं  बेटियाँ 

बड़ी मासूम सी जज्बाती होती हैं  बेटियाँ 

इनसे कायम है घर का नूर हमारे 

हर सुबह नियांमत से घर महकाती आती हैं  बेटियाँ 

लोग बेटों से ही रखते हैं तवक्को 

लेकिन बुरे वक्त में काम आती हैं बेटियाँ 

बड़ी मासूम सी जज्बाती होती हैं  बेटियाँ 

बेटियाँ  पुर नूर चिरागों की तरह 

रोशनी करतती जिस घर में जाती हैं बेटियाँ 

ससुराल का हर गम छुपा लेती 

सामने मां के आते ही मुस्कुराती हैं बेटियाँ 

बड़ी मासूम सी जज्बाती होती हैं  बेटियाँ 

एक बेटी हो तो खिल जाता है घर का आँगन 

 घर तो वही रहता रोशनी बढ़ाती हैं बेटियाँ 

बड़ी मासूम सी जज्बाती होती हैं  बेटियाँ 

शुक्रवार, 7 अगस्त 2020

भाषा की कोई जाति नहीं

 

भाषा की कोई जाति नहीं

   जैसा कि हम सभी लोग जानते हैं कि, संविधान ने हिंदी भाषा को राजभाषा का दर्जा प्रदान किया हुआ है | इस विषय पर केंद्र से इसका कोई भी स्वरूप निश्चित ही नहीं हो पाया है, इसका सिर्फ और सिर्फ कारण यह है कि हिंदी के स्वरूप को समझने में सभी लोग गलती कर जाते हैं | लोगों का यह मानना हो जाता है कि हिंदी तो सिर्फ उत्तर भारत की भाषा है | ऐसा नहीं है और न ही हमें ऐसा समझना चाहिए बल्कि हिंदी तो संपूर्ण देश की समृद्धि भाषा है | जो कि सिर्फ देश के नागरिकों को ही नहीं बल्कि संपूर्ण विश्व को एक नया मार्ग दिखाने का सामर्थ  रखती हैं | प्रयोग की दृष्टि से अगर हम देखें तो भाषा के दो रूप होते हैं एक तो वह जो हम प्रतिदिन की अपनी दिनचर्या में या कह लीजिए रोजमर्रा की जिंदगी में इस्तेमाल करते हैं | दूसरा वह जो किसी खास प्रयोजन से या खास मकसद से हम लोग प्रयोग करते हैं | हम बात करते हैं पहले वाली भाषा के बारे में जिसे  आदमी अपने परिवेश में सीखता है, अपने परिवार में सीखता है, अपने समाज में सीखता है | और इसके लिए उसको कोई खास प्रयास नहीं करना पड़ता है बल्कि उसके लिए मात्र यह बोलचाल की भाषा होती है | जिसे वह बड़ी सहजता से ही सीख जाता है | इसमें व्याकरण की शुद्धता का विशेष महत्व नहीं होता और न ही इसमें विशेष आग्रह किया गया होता है | इसे हम बोलचाल की भाषा भी कहते हैं | दूसरे प्रकार की भाषा को सीखना पड़ता है, जिसमें एक मर्यादित ढंग का पालन  और व्याकरण के नियम हमें सीखने पड़ते हैं | अर्थात व्याकरण भाषा हमें सीखनी पड़ती है और इसके लिए सीखने में रुचि का होना बहुत ही आवश्यक है |  इसको हम प्रशासकीय भाषा कह सकते हैं जिसकी अपनी एक अलग पहचान होती है | इससे हम सबको सहमत होने की आवश्यकता है और इससे जुड़ना ही पड़ेगा क्योंकि इसका मकसद जीवन यापन से कहीं आगे       है | यह निश्चित रूप से इसका असर हमारे साहित्य पर पड़ता है | हम हिंदी भाषा की बात करें तो यह हम सब का कर्तव्य बन जाता है कि हम सब हिंदी साहित्य की, विशेषता: व्याकरण क्षेत्र के लिए हम सभी अध्यापक और शिक्षाविदों का यह कर्तव्य बन जाता है कि हम इन नौनिहालों को एक सही रास्ता दिखाएँ | सही व्याकरण निष्ठ भाषा को सिखाएँ और यहाँ पर मैं कहना चाहूँगा कि भाषा की कोई जाति नहीं होती है | कोई जाति विशेष की भाषा नहीं होती है न ही किसी स्थान विशेष की भाषा होती है | जैसा कि मैंने आपको बताया था कि जो बोलचाल की भाषा होती है उसको हम भाषा न कहकर लोक भाषा कहते हैं | हमारे समाज में बोली जाने वाली भाषा से  हमें ऊपर उठकर सोचना है | हिंदी की कोई जाति नहीं है, यह सभी की भाषा है | इसका कोई वर्ग नहीं है, यह सभी वर्ग की भाषा है | अगर हम कहें संपूर्ण देश की भाषा है और संपूर्ण विश्व को मार्ग दिखाने वाली भाषा है तो यह कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी |

यदि हम आज देखें खास करके इस कोरोना काल में, तो हिंदी भाषा ने आज ऑनलाइन प्लेटफॉर्म के ऊपर अपने आप को विकास के अवसर में बदल लिया है | हर जगह-जगह वेबिनार आयोजित किए जा रहे हैं | आज हिंदी को लेकर लोग काफी संजीदा हैं | निश्चित तौर पर यह जो समय है कहीं न कहीं मानव समाज के लिए तो एक चुनौती ही है | लेकिन उस चुनौती को अगर हम अवसर में बदलना चाहे तो हम देखते हैं कि, हिंदी भाषा को बढ़ाने के लिए हमें इससे अच्छा और मौका नहीं मिल सकता है | आज जहां हम एक प्लेटफार्म पर इंटरनेट के माध्यम से खड़े हैं और अनेक विभिन्न वर्गों, समितियों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के माध्यम से हम अनेक विभिन्न विचार गोष्ठियां आयोजित कर रहे हैं | उसमें तरह-तरह के विषय या प्रकरण के ऊपर हम चर्चा कर रहे हैं | जिस तरीके से शोधार्थी, अध्यापक तथा अन्य समाजसेवी लोग इससे जुड़ रहे हैं, और अपने विचार रख रहे हैं तथा दूसरों के विचार से अवगत होकर कुछ नया सीख रहे हैं | इससे निश्चित तौर पर मैं कहना चाहूंगा कि इससे हमारी हिंदी भाषा के सम्मान में विकास और वृद्धि हो रही है तथा हिंदी एक विश्वव्यापी भाषा के रूप में उभर कर सामने आ रही हैं | सारी दुनिया में आज हिंदी को  एकता की एक कड़ी के रूप में सम्मानित दर्जा प्राप्त हो रहा है | विश्व के अनेक देशों में हिंदी को सम्मान जनक भाषा के रूप में स्थान मिल रहा है | इस गरिमा पूर्ण अवसर के लिए बहार बसे भारतीय मूल के शिक्षाविदों और भारतीयों का सबसे बड़ा हाथ है |

उत्तर भारत की भाषा कह कर के हिंदी के राष्ट्रीय व्यक्तित्व को छोटा करना उचित नहीं है | यह सच है और इसे कोई नकार नहीं सकता कि, आज आहिंदी भाषी क्षेत्र के लोगों ने हिंदी को अपनाया है और उसी के कारण ही हिंदी ने यह स्थान प्राप्त किया है | आज मैं कहना चाहूंगा कि आहिंदी भाषी क्षेत्रों में जितना हिंदी का व्यापक रूप देखने को मिल रहा है, आज तक कभी देखने को नहीं मिला है | इस कोरोना काल  में अगर हम देखें तो आहिंदी भाषी क्षेत्रों में हिंदी को बहुत बड़ा सम्मान मिल रहा है | लोग बहुत कुछ सीखने के लिए तत्पर हैं और सीख रहे हैं |

हिंदी हिंदुओं की भाषा है और उर्दू मुसलमानों की जुबान है ऐसा कहकर भी हिंदी को बहुत आघात पहुँचाया गया है | यह अंग्रेजो तथा मुट्ठी भर अंग्रेजी परस्त लोगों की साजिश रही है | इस बारे में मैं कहना चाहूँगा कि ऐसा नहीं है कि हिंदी सिर्फ हिंदुओं की भाषा है, जी नहीं ऐसा कहना बिल्कुल सरासर गलत बात होगी | भाषा की कोई जाति, भाषा की बिरादरी नहीं होती है | खास करके उसे मजहब का रंग देना तो भारत की संस्कृति के साथ खिलवाड़ करना होगा या संस्कृति के साथ दगाबाजी करना होगा | जो लोग ऐसा कहते हैं मजहब के रंगीन चश्में से इसको देखते हैं वे सरासर देश के साथ और देश की संस्कृति के साथ अन्याय कर रहे होते हैं | एक बार फिर मैं कहना चाहूँगा कि भाषा की कोई जाति या बिरादरी नहीं होती है | भाषा को जीवंत बनाए रखने के लिए कहीं के भी शब्द को आने की इजाजत होनी चाहिए, यह मेरा अपना विचार है | शब्द अन्य भाषा  या फिर ग्रामीण लोक भाषा के भी हो सकते हैं | ऐसे में यहाँ पर हम सबका दायित्व बनता है कि हम उन्हें मार्गदर्शन दें न कि उन पर पाबंदी लगाई जाए | इस बात को कभी नजरअंदाज नहीं करना चाहिए की भाषा किसी प्रदेश विशेष की अमानत है | आँचलिक बोलियों को मातृभाषा का बड़प्पन दे करके हिंदी की स्थिति को कम करना है, जो कि ठीक नहीं है | मैं तो कहूँगा कि सहज और सरल स्वरूप अख्तियार करने का रास्ता खोजें तो बहुत अच्छी शुरुआत होगी | यदि मैं आहिंदी भाषी क्षेत्र दक्षिण भारत की बात करूँ  तो वहां पर लोग हिंदी भाषा को हृदय से अपना रहे हैं | इसे सीखने में दिन रात एक कर रहे हैं | मैंने अपनी आंखों से देखा है | मैं दक्षिण भारत में अध्यापन का कार्य करता हूँ, और मैंने बच्चों को देखा है इतनी सहजता के साथ हिंदी भाषा को सिर्फ सीखना पसंद ही नहीं करते हैं, बल्कि इसे दिन-प्रतिदिन की दिनचर्या में भी प्रयोग करते हैं | और यह हम सभी के लिए एक बहुत ही अच्छा संकेत है | मेरी राय में भाषा न तो सरल होती हैं और न ही कठिन होती है, इसकी अवधारणा है कि हम इसको कैसे समझते  हैं | हिंदी की कठिनाई का ढिंढोरा पीटने वाले लोग निश्चित तौर पर अपनी समझ की भाषा से ज्यादा प्यार करते हैं | यह मेरा अपना मानना है जैसा उर्दू के माहिर लोग हिंदी जुबान को मुश्किल भाषा कहते हैं और इसमें कठिनाई को दूर करने की बात करते हैं जबकि ऐसा नहीं है | फिर मैं कहना चाहूँगा कि कोई भी भाषा न सरल है और न कठिन, बस जरूरत है तो उसको समझने की | यदि हम बात करें हिंदी और अंग्रेजी की तो अंग्रेजी भाषा से निश्चित तौर पर हिंदी बहुत ही सरल और वैज्ञानिक भाषा है, इसमें अर्थ ह्रदय स्पर्शी होते हैं |

हिंदी को अपना रहे वर्तमान शासन तंत्र में अपनी एक नई पहचान बनाने के लिए हिंदी आगे उभर कर आ रही है और निश्चित तौर पर मैं कहना चाहूँगा कि वर्तमान शासन तंत्र में हिंदी अपनी एक नई पहचान बनाने में कामयाब हो रही है | आने वाले समय में कार्यालय में पत्राचार की भाषा के रूप में निश्चित तौर पर हिंदी लोकप्रिय होगी जिन्हें हिंदी के विकास प्रसार एवं प्रचार का ज्ञान नहीं है | वही हिंदी को सरलीकरण की बात करते हैं, और वह सिर्फ आदत से मजबूर हैं | यह सरकारी कार्यालयों में राजभाषा विभाग की कार्यप्रणाली पर कोई अगर ध्यान दें तो ऐसी बात नहीं मिलेगी हिंदी अब किसी कानून और कायदे की उँगली पकड़कर चलने की भाषा नहीं रह गई है, उँगली पकड़कर चलने की मोहताज नहीं रही है | धीरे-धीरे राष्ट्रीय चेतना उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक संपूर्ण भारत में व्याप्त हो रही है अगर हम कहें तो इस काल में सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि वैश्विक स्तर पर सम्पूर्ण विश्व में हिंदी ने अपना जो स्थान बनाया है पिछले 40 से 50 वर्षों में स्थान हिंदी को नहीं मिल सका है | निश्चित तौर पर मैं कहना चाहूँगा कि लोगों का मन बदल रहा है, विदेशी चीजों के चलते लोगों में जो विदेशी भाषा की ललक थी वह कम हो रही है और वहीं पर वह लोग हिंदी को ज्यादा सम्मान दे रहे हैं | बजाय इसके कहने को कि, हिंदी को सरल किया जाए वह हिंदी को अपना रहे हैं और निश्चित तौर पर हिंदी आगे विकास के क्षेत्र में सभी के लिए एक नया मार्ग खोलेगी और जिससे सिर्फ देश का ही नहीं बल्कि विश्व का कल्याण होगा | यही हमारी संस्कृति कहती है “सर्वे भवंतु सुखिन: सर्वे संतु निरामया” संपूर्ण मानव समाज का कल्याण हो संपूर्ण धरती पर रहने वाले लोगों का कल्याण हो यह हमारी सोच है | निश्चित तौर पर यह जो हमारी राजभाषा है इन सभी चीजों को आगे लाने में सक्षम होगी | आखिर में ढ़ेर सारी शुभकामनाओं के साथ एक बार फिर मैं आप सब को यह बताना चाहता हूँ कि भाषा निश्चित तौर पर लोक भाषा हो सकती है, ग्रामीण भाषा हो सकती है, बोल चाल की भाषा हो सकती हैं, लेकिन भाषा की कोई जाति नहीं होती है | भाषा की कोई बिरादरी नहीं होती है | भाषा तो सिर्फ और सिर्फ भाषा होती है, जो कि हमें अपने विचार को अगले किसी दूसरे व्यक्ति तक पहुँचाने का एक साधन होती है | मैं आप सब को यह करता हूँ कि आप अपने मन और मस्तिष्क में यह रख लें कि कोई भी भाषा क्यों न हो, भाषा सिर्फ और सिर्फ भाषा होती है |

धन्यवाद

बुधवार, 5 अगस्त 2020

मन के गीत

1. गुमान
   मैं टीले पर खड़ा, खुद को ऊँचा समझता रहा |
कारवां आया चला भी गया,
खोया गुमानो में अहम् की रंगरलियों में,
थोड़ी सी सफलता में, थोड़ी से चपलता में,
खुद ही खुद को आगे समझता रहा ||
बातें न सुनता किसी की, हो गुमानो में,
औरों के वेरहमी से अरमां कुचलता रहा |
मैं टीले पर खड़ा, खुद को ऊँचा समझता रहा ||
समय की लगी थाप ऐसी यारों,
खुद को ही शहनशाह समझता रहा |
खुद को ही शहनशाह समझता रहा |
समय तो समय है, न छोड़ा किसी को,
आँखे खुली तो, विरानियत से सहमता रहा |
याद कर्मो की आने पे, मौका पाने को मचलता रहा,
संभव न था रंगमंच पर, जिंदगी मरघट किनारे कड़ी थी,
मैं टीले पर खड़ा, खुद को ऊँचा समझता रहा |
           मैं टीले पर खड़ा, खुद को ऊँचा समझता रहा |
                                                                           श्री कृष्ण कुमार शर्मा "सुमित"

2. यादें बचपन की
कोई लौटा दे ओ मेरे बचपन की यादें,
मिट्टी के घरौंदे बनाना ओ कागज की नावें चलाना |
ओ गुल्ली-डंडे का अपना खेल निराला,
ओ छुपान-छुपाई, झाबर,कब्बडी,अखाड़े को तरस जाना ||
पैदल ही दौड़ते हवाई चप्पलों में,
घर से कोसो दूर होड़-होड़ में ही स्कूल पहुंच जाना |
ओ कुइयां का ठण्डा पानी नहाना,
अमराई की घुली जवानी, खलिहानों में मचल जाना ||
ओ महुवे की खुसबू में बगिया महकना,
लू चलना, काका के मड़हे में सोके दुपहरिया बिताना |
खेतों में जाके ताजे खीरे-खरबूजे खाना,
गाँव के नुक्कड़ पे आके रामलीला की फील्ड सजाना ||
गाँव की इकलौती बस का शहर से आना,
बाबा को आता देखते डर के मारे लटकों में छिप जाना |
साल भर गुल्लकों में पैसे संजोना,
दशहरे मेले की डूग्गी बजते उसे फोड़ने को मचल जाना |
गाँव तो वही पर बदल सब खो सा गया,
न आती मिट्टी की खुसबू, न खलिहानों का गीत सुहाना ||
कितना प्यरा निराला था बचपन हमारा,
गाँव छोड़ शहर को आये संपति बना डाली अट्टालिकाना |
कोई लौटा दे ओ मेरे बचपन की यादें,
मिट्टी के घरौंदे बनाना ओ कागज की नावें चलाना ||…..२
                                                                             पं. कृष्ण कुमार शर्मा “सुमित”

3. समय महान 
किसे सुनाऊॅ कौन सुनेगा,
इस मौसम में मेरे मन की बात प्रिये |
सभी मूक हैं, पर दर्द एक सा,
सबके अपने-अपने झंझावात प्रिये ||
२. खुदा की खुदी पर करले भरोसा,
उसकी रहमत का ऐसा आगाज होगा |
दुश्मन जो बन करके हैं आज बैठे,
ख़िदमत में उन्ही का पहला अल्फ़ाज होगा ||
                                                                             पं. कृष्ण कुमार शर्मा “सुमित”

4. अस्तित्व भारत का 
हम तपे-खपे जल भट्ठी में,
ओ गला सकें औकात नहीं |
उगता सूरज रोक सकें वे,
उनके बस की बात नहीं ||
समय चक्र है,घना अँधेरा,
पल है उनका कुछ खास नहीं |
पर कायम रख लेंगें इसको ,
ऐसी उनकी अब औकात नहीं ||
आयेगा झंझर, टूटेगा ये मंजर,
छतरी उठते ही खुला गगन होगा |
खुद को परिचित कर पायेंगें ,
होगी उनमें इतनी बात नहीं |
हम तपे-खपे जल भट्ठी में,
ओ गला सकें औकात नहीं ||
                                                                          पं. कृष्ण कुमा शर्मा “सुमित”
5. कटुक-वचन
दुनिया वालों, तुम मिल दीप जलाओ |
कटुक वचन तुम छोड़ो, समय हमारे पास नहीं |
जीवन बीत रहा मुट्ठी बंद रेत सा,
चादर तानो प्यार की, कुढ़ने को कुछ खास नहीं ||
ये सत्य ! धैर्य परीक्षा लेता जीवन की,
पर कहने को कुछ भी मेरे पास नहीं |
कटुक वचन तुम छोड़ो, समय हमारे पास नहीं ||
दुनिया चपल चंचला बन बैठी है,
अब तो ऐसे में अपनों से भी आस नहीं |
जग की रीत यही है यारों,
रोने वालों के संग कोई पास नहीं |
कटुक वचन तुम छोड़ो, समय हमारे पास नहीं ||
जीवन की सार्थकता निहित इन्हीं में,
सेवा, प्रेम और सत्यता बाकी कुछ भी खाश नहीं |
जीवन दीप झिलमिल करता जग में,
कर्म तुम्हारे साथ रहेंगे सत्य यही,कोई परिहास नहीं ||
कटुक वचन तुम छोड़ो, समय हमारे पास नहीं |
दुनिया वालों,मिल दीप जलाओ समय हमारे पास नहीं ||
समय हमारे पास नहीं………………….
                                                                  पं. कृष्ण कुमार शर्मा “सुमित”

New Generation


युवापीढ़ी

जब किसी के ह्रदय की वेदना अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाती है तो साधारण व्यक्ति हो या कितना भी गंभीर इंसान ही क्यों न हो हर कोई अपनी अभिव्यक्ति प्रकट करने के लिए आतुर हो जाता है, और यही मेरे साथ भी हुआ है | आज जब मैं युवाओं को देखता हूँ तो देश और उनके भविष्य को सोचकर मन सिहर उठता है |
आँखों में उम्मीद के सपने, नयी उड़ान भरता हुआ मन, कुछ कर दिखाने का दमखम और दुनिया को अपनी मुट्ठी में करने का साहस रखने वाला युवा कहा जाता है। युवा शब्द ही मन में उडान और उमंग पैदा करता है। उम्र का यही वह दौर है जब न केवल उस युवा के बल्कि उसके राष्ट्र का भविष्य तय किया जा सकता है। आज के भारत को युवा भारत कहा जाता है क्योंकि हमारे देश में असम्भव को संभव में बदलने वाले युवाओं की संख्या सर्वाधिक है। आंकड़ों के अनुसार भारत की 65 प्रतिशत जनसंख्या 35 वर्ष आयु तक के युवकों की और 25 साल उम्रं के नौजवानों की संख्या 50 प्रतिशत से भी अधिक है। ऐसे में यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि क्या हमारी युवापीढ़ी दिशाहीन हो रही है ? महत्वपूर्ण इसलिए भी यदि युवा शक्ति का सही दिशा में उपयोग न किया जाए तो इनका जरा सा भी भटकाव राष्ट्र के भविष्य को अनिश्चित कर सकता है।
आज का एक सत्य यह भी है कि युवा बहुत मनमानी करते हैं और किसी की सुनते नहीं। दिशाहीनता की इस स्थिति में युवाओं की ऊर्जाओं का नकारात्मक दिशाओं की ओर मार्गान्तरण व भटकाव होता जा रहा है। लक्ष्यहीनता के माहौल ने युवाओं को इतना दिग्भ्रमित करके रख दिया है कि उन्हें सूझ ही नहीं रहा है कि करना क्या है, हो क्या रहा है, और आखिर उनका होगा क्या? आज से दो-तीन दशक पूर्व तक साधन-सुविधाओं से दूर रहकर पढ़ाई करने वाले बच्चों में ‘सुखार्थिन कुतो विद्या, विद्यार्थिन कुतो सुखम्’ के भावों के साथ जीवन निर्माण की परंपरा बनी हुई थी। और ऐसे में जो पीढ़ियाँ हाल के वर्षों में नाम कमा पायी हैं, वैसा शायद अब संभव नहीं।
आज जब मैं समाज की स्थिति और उसकी संस्कृति एवं परम्परा तथा संस्कारों की ओर ध्यान देता हूँ तो, अनायास ही मैं अतीत में चला जाता हूँ | उस समय इतनी चकाचौंध करने वाली तमाम (आकर्षण पूर्ण) सुविधाएँ न थी | हालांकि उस समय इतनी उच्च स्तर की शिक्षा और शिक्षण संस्थाएं भी नहीं थी किन्तु नि:संदेह बच्चों में संस्कार था | बच्चे अपने माता-पिता ही नहीं बल्कि पड़ोसियों की भी इज्जत और आदर करते थे | यही नहीं कहीं गलती से रास्ते में कोई बूढ़ा या असहाय दिख जाता थो तो पक्का उसकी मदद करते थे | तब और अब में इतना अंतर क्यों हुआ, जब मैने इसका कारण जानने की कोशिश की तो लोग कहते मिले, कि ज़माना बदल गया है “शर्माजी” ! क्या संस्कार को भूल जाना ही विकास है ? क्या आज की नई पीढ़ी माता-पिता का तिरस्कार या उनकी अवहेलना करके उनकी बातें न मानने में ही अपना विकास समझ रही है ? यदि ऐसा है तो मेरे विचार से यह पूर्णतया गलत है क्योंकि बिना माता-पिता के आशीष के तो भगवान् भी किसी का साथ नहीं देता | अक्सर देखने को मिलता है, कि बच्चों को उत्तम सुविधाएं प्रदान करने के लिए माता-पिता अपने लिए सारी चीजों का त्याग करके दिन रात कठिन से कठिन काम करते हैं | उनकी इच्छा होती है कि जो कुछ भी अभाव उन्होंने अपने जीवन में सहा है उनके बच्चों को वह न झेलना पड़े | किन्तु आज की युवापीढ़ी उनके त्याग और श्रम को महत्व न देते हुए तब हद पार कर देती है जब वे माता-पिता के द्वारा किये जाने वाले कामों को यह कहकर याद दिलाते हैं, कि जो आप कर रहे हैं वो तो आपका फ़र्ज है |

                                                                                                             श्री कृष्ण कुमार शर्मा"सुमित"


St. Kuriakose Elias Chavara


समाज सेवी संत कुरिएकोस एलियास चावरा


सारांश :- जब भगवान महान व्यक्ति को इस धरा पर भेजता है तो जन्म के साथ ही उसके माथे पर लिख देता है क्रांतिकारी, और फिर क्रांतिकारी के पथ में विश्राम कहाँ ? वह तो समाज में व्याप्त कुरीतियों और अभावों को समाप्त करने में जी-जान से लग जाता है | कुछ ऐसे ही थे संत कुरिएकोस एलियास चावरा जी | स्वर्गीय कुरिएकोस एलियास चावरा जी महान सीरियाई कैथोलिक संत थे | इनका जन्म भारत देश के केरल राज्य के कैनाकरी में १० फरवरी १८०५ ई को एक नसरानी इसाई परिवार में हुआ | इनके पिताजी का नाम कुरिएकोस चावरा और माता का नाम मरियम था |

मूल शब्द :- संत कुरिएकोस एलियास चावरा जी का जीवनवृत एवं व्यक्तित्व, प्राम्भिक परिवेश, शिक्षा, जीवन संघर्ष, समाज सेवा और उनके कार्य, सम्मान और पुरस्कार |

प्रस्तावना :- प्रस्तुत लधु शोध-प्रबन्ध “समाज सेवी संत कुरिएकोस एलियास चावरा” जी का व्यक्तित्व, एक संक्षिप्त परिचय | के माध्यम से मैंने यह बताने का प्रयास किया है की संत कुरिएकोस एलियास चावरा जी का जीवन स्वयं संघर्ष पूर्ण रहा है, बचपन में एलियास गाँव के ही विद्यालय ‘कलारी’ में कई भाषाओँ और प्राथमिक विज्ञान की शिक्षा प्राप्त की इनका झुकाव बचपन से ही गरीबी में रहने वाले लोगों के प्रति उदार और सहानुभूति से भरा था वे हमेशा उनकी उन्नति के बारे में सोचते रहते थे |

संत चावरा जी का जीवनवृत एवं व्यक्तित्व:- कुरिएकोस एलियास चावरा जी का जन्म फरवरी 10, 1805 को केरल के आलप्पुषा जिला के कैनकरी नामक गाँव में हुआ। इनके पिताजी का नाम कुरिएकोस चावरा और माता का नाम मरियम तोप्पिल था | स्थानीय प्रथा के अनुसार बच्चे को आठवें दिन चेन्नंकरी पेरिश में बपतिस्मा संस्कार दिया गया। इन्होने सन १८१८ ई में मुख्याधिष्ठाता(Rector) पालकल थॉमस मल्पान से प्रभावित हो कर एक पुजारी बनने की इच्छा से पल्लिपुरम सेमिनरी में प्रवेश ले लिया | और धार्मिक पढ़ाई के उपरांत २९ नवम्बर १८२९ ई को इन्हे इसाई पुजारी/पुरोहित (Priest) के रूप में अभिषेक किया गया | चावरा जी एक इसाई समुदाय के होते हुए भी मानव सेवा को अपना धर्म बनाया और मानव के उत्थान के लिए चर्च के पास ही विद्यालय को प्रारम्भ करने पर बल दिया | क्योंकि उनको इस बात का आभास था की सिर्फ और सिर्फ शिक्षा से ही मानव और फिर समाज और अंत में राष्ट्र का भविष्य बदला जा सकता है | आज अनेक चर्चों में उनके मार्गदर्शन में खोले गए विद्यालय अपनी सेवा समाज के हर वर्ग को प्रदान रहे हैं |  

शिक्षा :- चावरा जी का वचपन बहुत ही संघर्ष पूर्ण स्थिति में गुजरा था | 5 साल से 10 साल तक के आयु में उन्होंने गाँव के एक शिक्षक से भाषा ज्ञान और प्राथमिक शिक्षा ग्रहण की। बालक मन से ही समाज के निम्न वर्ग को पिसते देख कर उनके लिए कुछ करने की ललक लिए चावरा जी ने अपना जीवन मानव की सेवा में ही अर्पित करने का संकल्प ले लिया था | बचपन से ही उनके हृदय में एक पुरोहित बनने की तीव्र इच्छा थी जो लोगों को सेवा प्रदान कर सके इसलिए वे संत यूसफ गिर्जाघर के पल्लि-पुरोहित से इस के लिए प्रशिक्षण प्राप्त करने लगे । सन 1818 में 13 साल की आयु में पल्लिप्पुरम में स्थित सेमिनरी में प्रवेश किया जहाँ मल्पान थॉमस पालक्कल अधिष्ठाता थे। और आगे चलकर उन्होंने फ़ादर की उपाधि और पद प्राप्त किया | उसके बाद अपना पूरा जीवन ही लोगों और समाज सेवा में अर्पित कर दिया |

जीवन-संघर्ष तथा समाजसेवी कार्य :- सेमिनरी में मल्पान थॉमस पालक्कल की अनुपस्थिति में कुरिएकोस एलियास चावरा जी अधिष्ठाता का कार्यभार संभालने लगे। आगे चलकर फादर कुरियाकोस, मल्पान थॉमस पालक्कल तथा मल्पान थॉमस पोरूकरा के साथ मिलकर एक धर्मसमाज की स्थापना करने की योजना बनायी और इस पर काम करते हुए सन 1830 में इस धर्मसमाज का प्रथम मठ बनाने हेतु वे मान्नानम गये और वहाँ पर 11 मई 1831 को उसकी नींव डाली और Caramelizes of Mary Immaculate (CMI) नामक धर्मसमाज की स्थापना हुई।

कुरिएकोस एलियास चावरा ने "पल्लीकुडम" आंदोलन की शुरुआत की, जिसका उद्देश्य केरल के हर पैरिश चर्च से जुड़े स्कूलों में मुफ्त शिक्षा प्रदान करता है। सन 1846 में इन्होने सर्वप्रथम एक संस्कृत विद्यालय की स्थापना की इस विद्यालय की खास बात यह थी कि इसमें किसी भी समुदाय या धर्म के बच्चे अध्ययन कर सकते थे हालांकि प्रारम्भ में इनका काफी विरोध हुआ किंतु चावरा जी ने किसी की परवाह किये बिना अपने कार्य में लगे रहे और समाज को एक नई दिशा और दशा प्रदान करते रहे | संस्कृत पाठशाला की शुरुआत एक शिक्षा के क्षेत्र में क्रांति थी उस समय तक संस्कृत कुछ लोगों के संरक्षण में ही थी। उन्होंने त्रिचूर के एक ब्राह्मण को संस्कृत पढ़ाने के लिए नियुक्त किया। यहाँ सभी छात्रों को संस्कृत पढ़ाई जाती थी। कुरिएकोस एलियास चावरा जी ने उच्च वर्ग के परिवारों के बच्चों के साथ-साथ समुदाय के पिछड़े वर्गों के बच्चों को भी पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया। कुरिएकोस एलियास चावरा जी स्वयं संस्कृत के आजीवन छात्र थे। वे हिंदू धर्मग्रंथों को इतनी अच्छी तरह से जानते थे कि उसने अपने स्वयं के धर्मशास्त्रीय लेखन में भी उसका उपयोग किया है । उनका दृढ़ विश्वास था कि बौद्धिक विकास और महिलाओं की शिक्षा सामाजिक कल्याण की दिशा में पहला कदम है। महिलाओं के लिए एक धार्मिक मण्डली की स्थापना करके चवारा जी महिलाओं की सामाजिक स्थिति का भी उत्थान करना चाहा और मंडली का निर्माण कर सदस्यों को लड़कियों को शिक्षा और प्रशिक्षण प्रदान करने को कहा ताकि भविष्य की माताओं को अपने बच्चों को निर्देश और मार्गदर्शन करने के लिए प्रबुद्ध किया जा सके। उन्होंने व्यावसायिक और तकनीकी प्रशिक्षण के माध्यम से महिलाओं की रोजगार क्षमता में सुधार किया। शारीरिक और मानसिक विकलांग व्यक्तियों के लिए व्यावसायिक प्रशिक्षण की भी व्यवस्था की थी |

आज 21 वीं सदी के पहले दशक में सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर सरकार ने सरकारी स्कूलों में मध्याह्न भोजन योजना शुरू की है | इसको आज से लगभग डेढ़ सदी पहले, फादर चावरा ने प्रारम्भ कर दिया था उस समय वे विद्यालयों में ही पढ़ने वाले गरीब परिवारों के छात्रों को भोजन प्रदान किया करते थे | उनका मानना था कि, बच्चों के बौद्धिक और शारीरिक विकास के लिए अच्छा भोजन बहुत जरूरी है। यही नहीं उन्होंने कैनाकारी में बेसहारा और गरीबों के लिए पहला घर बनाया, जो आज एक स्मारक के रूप में विद्यमान है | उन्होंने एक लिखित निर्देश दिया कि कैसे इस घर को चलाने के लिए धन इकट्ठा किया जाए लिया| अपने जीवन काल में, उन्होंने कई ऐसे घर बनाए।

1887 में उन्होंने 'नसरानी दीपिका' मलयालम दैनिक शुरू किया था यह पहला मलयाली दैनिक था जो सेंट जोसेफ प्रेस में छपा था। उन्होंने अपने बहुत ही व्यस्त जीवन होने के बावजूद गद्य और कुछ किताबों को लिखने के लिए समय निकल कर उनकी रचना की जिसमें कुछ निम्नवत हैं :-  आत्मानुथमम, मरनवेटेट पडवनुल्ला पाना, अनास्ताशायुदे रक्थाकश्याम, नलगामंगल, ध्यान सलपंगल के अलावा नाटक की भी रचना की थी जिसका नाम “नीलदारपन” है, यह 1860 में प्रकाशित हुआ था। 1882 में केरल वर्मा वलियाकोविल थामपुराण द्वारा मलयालम में पहला मलयालम नाटक अभिज्ञान शाकुन्तलम् का अनुवाद किया गया है। इससे पहले के दशक में, फादर चावारा ने 10 इकोटोलॉग या लिटर्जिकल ड्रामा जैसे कई नाटक लिखे थे। जिसका कई दशकों बाद मंचन किया गया था, इसलिए उन्हें मलयालम नाटक का जनक माना जा सकता है।

      दोनों मल्पानों के स्वर्गवास के बाद फादर कुरिएकोस एलियास चावरा ने धर्मसमाज का नेतृत्व भार ग्रहण किया और सन 1856 से सन 1871 तक फ़ादर कुरियाकोस धर्मसमाज के परमाधिकारी बने रहे। फ़ादर कुरिएकोस एलियास चावरा जी की अगुवाई में मान्नानम के बाद अलग-अलग जगहों पर 6 और मठों की स्थापना हुई। केरल की सीरो मलबार कलीसिया के नवीनीकरण में सी.एम.आई. धर्मसमाज का बहुत बडा योगदान रहा। उन्होंनें पुरोहितों के प्रशिक्षण तथा पुरोहितों, धर्मसंघियों तथा साधारण विश्वासियों की वार्षिक आध्यात्मिक साधना को बहुत महत्व दिया। स्थानीय भाषा में काथलिक शिक्षा प्रदान करने हेतु एक प्रकाशन केन्द्र की स्थापना की गयी। अनाथों के लिए एक सेवा केन्द्र को भी शुरू किया गया। सी.एम.आई. धर्मसमाज ने शिक्षा के क्षेत्र में बहुत बडे योगदान देते हुए विभिन्न पाठशालाओं की भी स्थापना की। फादर लियोपोल्ड बोकारो के साथ मिल कर फादर कुरियाकोस ने महिलाओं के लिए मदर कार्मल के धर्मसमाज की भी स्थापना की। सन 1861 में जब मार थॉमस रोकोस संत केरल आये और तत्पश्चात जो विच्छिन्न सम्प्रदाय की शुरुआत हुई, तब वरापोली के महाधर्माध्यक्ष ने फादर कुरियाकोस को उपधर्मपाल नियुक्त किया। उस विच्छिन्न सम्प्रदाय से केरल की कलीसिया को बचाने में फादर कुरिएकोस एलियास चावरा जी का सराहनीय योगदान रहा। 3 जनवरी सन 1871 को फादर कुरियाकोस का कोच्ची के कूनम्माव मठ में बीमारी के कारण निधन हो गया ।

कुरिएकोस एलियास चावरा जी के निःस्वार्थ भाव से सभी धर्म और सम्प्रदायों के लिए किये गए कार्यों के नाते सभी उन्हें “भगवान् का दूत” मानने लगे | एक छह वर्षीय लड़के, जोसेफ मैथ्यू पेनापरम्पिल जिसे एक घातक बीमारी थी और उसका इलाज़ चल रहा था उसने कुरिएकोस एलियास चावरा जी को सपने में देखा और वह बीमारी मुक्त हो गया इस घटना को सभी ने एक चमत्कार के रूप में स्वीकार किया था। इसके बाद कुरिएकोस एलियास चावरा जी को सपने में देखने से कई लोगों को चमत्कारिक रूप से बीमारी से ठीक होने का अनुभव हुआ है। जिसमें सन्त अल्फोन्सा ने सन 1936 में बीमारी के दौरान दो बार कुरिएकोस एलियास चावरा के दर्शन पाने तथा उसके फलस्वरूप बिमारी से मुक्ति प्राप्त होने का प्रमाण दिया । जब 8 फरवरी 1985 को पोप जॉन पॉल द्वितीय भारत भ्रमण पर आए और केरल गए थो उन्होंने कोट्टयम में चावरा कुरिएकोस एलियास चावरा को संत घोषित करने का प्रस्ताव दिया था काफी दिनों के उपरांत 23 नवंबर 2014 को संत पिता(पोप) फ्रांसिस ने रोम में कुरिएकोस एलियास चावरा जी को संत घोषित किया।

निष्कर्ष :-

समाज में होने वाले परिवर्तन इतिहास से सीखने और वर्तमान स्थिति को जानने तथा भविष्य के लिए दूरदृष्टि रख कर काम करने का परिणाम होते हैं । कुरिएकोस एलियास चावरा जी इस प्रकार के  दूरदर्शी व्यक्तियों में से एक थे जिन्होंने समाज को बदल कर रख दिया और जिनका लगाया हुआ एक पौधा आज अनेक बागों का रूप लेकर निरंतर पूरे विश्व में विभिन्न समाज की सेवा कर रहा है |उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन ही लोगों और समाज के भलाई के लिए अर्पित कर  दिया | आज सम्पूर्ण विश्व में सीएमआई नामक संस्था कुरिएकोस एलियास चावरा जी के बताए मार्ग पर चल कर लाखों करोड़ों छात्र-छात्राओं को एक इसाई समुदाय की संस्था होने के बावजूद सभी धर्मों और सम्प्रदायों को एक सामान विद्यादान करने के साथ ही साथ अनेक समाजसेवी कार्य भी कर रही है | कुरिएकोस एलियास चावरा जी के निःस्वार्थ भाव से किए कार्यों के लिए सम्मान स्वरूप भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति  श्री आर.वेंकटरामन ने 1987 में भारतीय डाक विभाग द्वारा डाक टिकट जारी कर उनको सम्मानित किया था |

                                                                                                                   श्री कृष्ण कुमार शर्मा "सुमित"


शनिवार, 1 अगस्त 2020

मनुष्य

6. मनुष्य 
मनुष्य भी क्या जीव है,
सपने ही संजोता वो उम्र भर |
बालक,भाई,प्रियतम,पिता वो,
कभी दुश्मनी निभाता क्रूर बन ||
कभी प्रियतमा का प्रीतम,
कभी वैभवशाली जन मानस का |
फिर भी न नींद आती उसे,
रातों को सोचता ही रहता चकोर बन ||
कब,कहाँ,कैसे ? माला-माल होऊं,
यही फिदरत रही तेरी उम्र भर |
खूब पाया,खूब संजोया यहाँ,
अंत समय ठोकरे मिली दर-बदर ||
आज मरघट पर याद आया,
क्या खोया, क्या पाया उम्र भर |
जानता सब कुछ, फिर भी सपने संजोता,
दौड़ता दिनभर न थकता, भागता उम्रभर ||
‘सुमित’ सिर्फ माया का खेल ये दुनिया,
अंत याद आता सब,किया क्या है? उम्रभर ||
                                                                        पं. कृष्ण कुमा शर्मा “सुमित”
7. चीर हरण
छा गया अँधेरा धुँआ उठ रहा है,
हाल ये ही मेरे भारत हो रहा है |
नैतिकता पे भारी अनैतिकता हो रही है,
संतरी से मन्त्री सभी हैं मूक दर्शक |
कहाँ खो गये हो प्यारे मुरारी,
माँ-भारती का चीर-हरण हो रहा है ||
महंगाई का दानव खड़ा द्वार पे,
विकास के नाम पे सब हरण हो रहा है |
पानी सर से गुजरने लगा अब तो,
क्या-क्या कहूँ कुछ न वरण हो रहा है |
द्रोपदी को बचाया था चीर बन करके ,
अब तो तुम्ही हो नैया, तुम्ही खेवैया |
आओ मुरारी बचाओ लाज भारी,
माँ भारती का बेटों से चीर-हरण हो रहा है ||
छा गया चहुओर अँधेरा, धुँआ उठ रहा है,
हाल यही तो, मेरे भारत हो रहा है |
कहाँ खो गये हो प्यारे मुरारी,
माँ-भारती का चीर-हरण हो रहा है ||
                                                                      पं. कृष्ण कुमार शर्मा “सुमित”

पुरानी पेंशन : बुढ़ापे की लाठी

                                                          पुरानी पेंशन : बुढ़ापे की लाठी पुरानी पेंशन योजना (OPS) को भारत में लंबे समय तक सेव...